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KATIHAR LIVE: 2009

Thursday, November 12, 2009

मनिहारी में नो-एंट्री ध्वस्त

मनिहारी नगरपंचायत में आम जनतावों की मांग को ध्यान में रखकर वर्तमान अनुमंडलाधिकारी नें नो-एंट्री की वैवास्था की.परन्तु मनिहारी पुलिस की कुवैवास्था के कारन खुलकर भरी माल वाहक चालक अनुमंडलाधिकारी के आदेश की धज्जियाँ उरतें हैं ! नो-एंट्री के समय पर खुलेआम वाहनों का परिचालन जरी है ... अपुष्ट जानकारी के अनुसार खुलेआम मनिहारी घाट पर तैनात पुलिसकर्मी पैसे लेकर नो-एंट्री के समय वाहनों को जाने देतें हैं ...नो-एंट्री के समय पर वाहनों के परिचालन से सरस्वती शिशु शिक्षा मंदिर घाट रोड स्कूल के बच्चों को भरी परेशानी का सामना करना परता है ... और दुर्घटना की स्थिति बनी रहती है ...

Saturday, October 31, 2009

सूचना का अधिकार अधिनियम का इतिहास

मैग्‍सैसे अवार्ड विजेता श्रीमती अरूणा रॉय के नेतृत्व में व मजदूर किसान शक्ति संगठन के बैनर तले सूचना का अधिकार के लिए वर्ष
1992 में राजस्‍थान से आंदोलन शुरू हुआ था। इसी क्रम में अप्रेल 1996 में सूचना के अधिकार की मांग को लेकर चालीस दिन का  धरना दिया गया। राजस्‍थान सरकार पर दबाब बढ़ने पर तत्‍कालीन मुख्‍य मंत्री अशोक गहलोत ने वर्ष 2000 में राज्‍य स्‍तर पर सूचना 
का अधिकार कानून अस्तित्‍व में लाया। इसके बाद देखते ही देखते नौ राज्‍यों दिल्‍ली, महाराष्‍ट्र, तमिलनाडु, राजस्‍थान, कर्नाटक, जम्‍मू-
कश्‍मीर, असम, गोवा व मध्‍यप्रदेश में सूचना का अधिकार कानून लागू हो गया। कॉमन मिनियम प्रोग्राम में सूचना के अधिकार

अधिनियम को लोकसभा में पारित करने का संकल्‍प लिया गया था तथा नेशनल एडवायजरी कॉन्सिल के सतत् प्रयास से यह कानून 
देश में लागू हो गया है।
वर्ष 2002 में केन्‍द्र की राजग सरकार ने सूचना की स्‍वतंत्रता विधेयक पारित कराया, लेकिन वह राजपत्र में प्रकाशित नहीं होने से कानून 
का रूप नहीं ले सका। इस विधेयक में सिर्फ सूचना लेने की स्‍वतंत्रता दी, सूचना देना या नहीं देना अधिकारी की मर्जी पर छोड दिया।
वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के नेतृत्‍व वाली केन्‍द्र की संप्रग सरकार ने राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया, जिसने 
अगस्‍त 2004 में केन्‍द्र सरकार को सूचना का स्‍वतंत्रता अधिनियम में संशोधन सुझाए और उसी वर्ष यह विधेयक संसद में पेश हो गया। 
11 मई 2005 को विधेयक को लोकसभा ने और 12 मई 2005 को राज्‍यसभा ने मंजूरी दे दी। 15 जून 2005 को इस पर राष्‍ट्रपति की 
सहमति मिलते ही सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 पूरे देश में प्रभावशील हो गया। उक्‍त अधिनियम की धारा 4 की उपधारा (1) 
एवं धारा 12, 13, 15, 16, 24, 27, 28 की उपधाराएं (1) एवं (2) तत्‍काल प्रभाव में आ गई और शेष प्रावधान अधिनियम बनने की 
तिथि से 120 वें दिन अर्थात् 12 अक्‍टूबर 2005 से लागू किया गया। प्रत्‍येक राज्‍य में आयोग का गठन करने का प्रावधान रखा गया।
       
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Saturday, October 24, 2009

मैं सोचता हूं


मै अक्सर यह सोचता हूं कि क्यों आखिर चुनाव के समय सबसे ज्यादा टिकट को लेने की होड़ मची रहती है वहीं यह भी देखा जाता है कि जो करोड़पति है उन्हें ही गरीब जनता से प्रेम क्यों उमड़ता है ,वे ही क्यों जनप्रतिनिधि बनने की सोचते हैं मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो टिकट के लिये कई लाख रुपये यूं ही उड़ा देते हैं सिर्फ टिकट लेने के लिये। 

क्या जनप्रतिनिध बनने के लिये रुपयों की ताकत होना बहुत ज़रुरी है ?यह बात भले ही खुलकर कोई न कहता हो कि हर पार्टी आज के वक्त टिकट इन तथाकथित जनप्रतिनिधयों की लोकप्रियता को देखकर नहीं बल्कि पैसा देने की ताकत देखकर दिये जाते हैं। लोगों के असली प्रतिनिधि तो टिकट दूर से ही देखकर ये सोच लेते हैं कि चलो हो सकता है कि भविष्य में कभी टिकट मिल जाये। 
लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। असली कार्यकर्ता जो कड़ी दोपहर में ज़िंदाबाद के नारे लगाते है अंत में शाम को एक पेग या दो पेग में ही खुश होकर अगली बार और ज़ोर लगाने का दावा करते हुए लड़खड़ाते कदमों से चले जाते हैं। और अपने एसी कमरों में बैठी हुई पैसों की आसामी टिकट की नीलामी बिलकुल आईपीएल में खिलाड़ियों की नीलामी की तरह करती है। इसमें टिकट की बोलियां लगती हैं। लेकिन टिकट किसी उम्मीदवार को क्यों दिए गये इसका जवाब पार्टी प्रवक्ता भी ठीक से नहीं दे पाते। अमीरों को ग़रीब जनता की फ़िक्र इसलिए होती है क्योंकि यह ग़रीबों का देश है. ग़रीब यहाँ आधे से ज़्यादा हैं.चुनाव में इनके वोट निर्णायक होते हैं. इनको बिकाऊ समझा जाता है. इनके वोट के सहारे सत्ता तक पहुँचा जाता है. इसके बाद तो और अमीर होने के सारे रास्ते खुल जाते हैं. इस प्रकार ग़रीबों के सहारे राजनीतिज्ञ पहले लख्पति फिर करोड़पति और फिर अरबपति बनते जाते हैं. एवज में ग़रीबों को मिलते हैं ग़रीबी हटाओ के नारे और चुनाव के समय कुछ 'कैश' और शायद एक शराब की बोतल. लोकतंत्र हमारे यहाँ अमीरों के लिए पैसे का एक खेल बनकर रह गया है. अमीर हमारे लोकतंत्र को दूषित कर रहे हैं.
बस यही है पत्रकारिता कि जो वे बता दें उसे लोगों को बता दो क्या हमारा काम यहां पर खत्म हो जाता है गुज़रात के कांड पर वा जपेयी साहब भी कुछ यही बोल गये। लेकिन आजकल यही होता है। मैं खुद एक छोटा सा पत्रकार हूं लेकिन ये छोटा कभी तो बड़ी होगा और कोई रास्ता जरूर लेकर आएगा। 

Thursday, October 22, 2009

स्मोकिंग पर बैन का क्या हुआ?

एक बार फिर सार्वजनिक  स्थानों पर स्मोकिंग बैन धुएं की तरह उड़ गया। पोस्टर  और बैनर विभिन्न स्थानों पर देखकर यह लगता है कि धूम्रपान के बुरे असर के बारे में लोगों में जागरुकता पैदा कर रहे हैं, लेकिन लोगों के लिए ये सब बेकार हैं। हर जगह लोग सरे आम स्मोकिंग करते दिख रहे हैं।

स्मोकिंग बैन तो लगा दिया पर अब इसका क्या हुआ, यह जानने की फुरसत सरकार को नहीं है। मुझे समझ नहीं आता कि हमारी सरकार पश्चिमी देशों के परिणाम से तुलना क्यूं कर रही थी, जब वे स्मोकिंग बैन लगा रही थीं। इसे यहां पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सकता। यह तो सबको पता था। यदि बैन लगाना ही था तो सेल/मैन्युफैक्चरिंग, आयात और सिगरेट, तम्बाकू, बीडी़ आदि के निर्यात समेत सब पर बैन क्यों नहीं लगाया?   


सरकार दोहरे मानदंड अपना रही है। वह तम्बाकू/ सिगरेट/बीड़ी से मिलनेवाला राजस्व नहीं खोना चाहती। साथ में लोग यदि धूम्रपान कर भी रहे हैं तो उनकी सहेत की चिता सरकार क्यूं करे?
यदि एक कमरे में ये लोग बैठकर स्मोकिंग करते हैं तो सरकार को क्या प्रॉब्लम है? कम से कम घर में, बच्चों और महिलाओं का स्वास्थ्य तो ठीक रह सकता है। ये लोग हर तरफ गंभीर समस्या पैदा कर रहे हैं। धूम्रपान करने वालों को कोई तो जगह की जरूरत है। कब जागेगी यह सरकार? आज तक सार्वजनिक स्थानों कितने धूम्रपान करनेवालों को पकड़ा गया है, इसका उत्तर किसके पास है?
                                      

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