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KATIHAR LIVE: मैं सोचता हूं

Saturday, October 24, 2009

मैं सोचता हूं


मै अक्सर यह सोचता हूं कि क्यों आखिर चुनाव के समय सबसे ज्यादा टिकट को लेने की होड़ मची रहती है वहीं यह भी देखा जाता है कि जो करोड़पति है उन्हें ही गरीब जनता से प्रेम क्यों उमड़ता है ,वे ही क्यों जनप्रतिनिधि बनने की सोचते हैं मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो टिकट के लिये कई लाख रुपये यूं ही उड़ा देते हैं सिर्फ टिकट लेने के लिये। 

क्या जनप्रतिनिध बनने के लिये रुपयों की ताकत होना बहुत ज़रुरी है ?यह बात भले ही खुलकर कोई न कहता हो कि हर पार्टी आज के वक्त टिकट इन तथाकथित जनप्रतिनिधयों की लोकप्रियता को देखकर नहीं बल्कि पैसा देने की ताकत देखकर दिये जाते हैं। लोगों के असली प्रतिनिधि तो टिकट दूर से ही देखकर ये सोच लेते हैं कि चलो हो सकता है कि भविष्य में कभी टिकट मिल जाये। 
लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है। असली कार्यकर्ता जो कड़ी दोपहर में ज़िंदाबाद के नारे लगाते है अंत में शाम को एक पेग या दो पेग में ही खुश होकर अगली बार और ज़ोर लगाने का दावा करते हुए लड़खड़ाते कदमों से चले जाते हैं। और अपने एसी कमरों में बैठी हुई पैसों की आसामी टिकट की नीलामी बिलकुल आईपीएल में खिलाड़ियों की नीलामी की तरह करती है। इसमें टिकट की बोलियां लगती हैं। लेकिन टिकट किसी उम्मीदवार को क्यों दिए गये इसका जवाब पार्टी प्रवक्ता भी ठीक से नहीं दे पाते। अमीरों को ग़रीब जनता की फ़िक्र इसलिए होती है क्योंकि यह ग़रीबों का देश है. ग़रीब यहाँ आधे से ज़्यादा हैं.चुनाव में इनके वोट निर्णायक होते हैं. इनको बिकाऊ समझा जाता है. इनके वोट के सहारे सत्ता तक पहुँचा जाता है. इसके बाद तो और अमीर होने के सारे रास्ते खुल जाते हैं. इस प्रकार ग़रीबों के सहारे राजनीतिज्ञ पहले लख्पति फिर करोड़पति और फिर अरबपति बनते जाते हैं. एवज में ग़रीबों को मिलते हैं ग़रीबी हटाओ के नारे और चुनाव के समय कुछ 'कैश' और शायद एक शराब की बोतल. लोकतंत्र हमारे यहाँ अमीरों के लिए पैसे का एक खेल बनकर रह गया है. अमीर हमारे लोकतंत्र को दूषित कर रहे हैं.
बस यही है पत्रकारिता कि जो वे बता दें उसे लोगों को बता दो क्या हमारा काम यहां पर खत्म हो जाता है गुज़रात के कांड पर वा जपेयी साहब भी कुछ यही बोल गये। लेकिन आजकल यही होता है। मैं खुद एक छोटा सा पत्रकार हूं लेकिन ये छोटा कभी तो बड़ी होगा और कोई रास्ता जरूर लेकर आएगा। 

2 comments:

मृगेंन्द्र कुमार said...

नेता की भाषा............
वोट जो थोक में मिलते थे
मिलने बंद हों गए
उन्हें दिलाने वाले भी कही और चले गए
अपने न होने की हवा में
गम ज़्यादा बढ़ गया और वह जो ज़्यादा था
बन जाएगा असीम
पहलवान की ताकत और
समंदर तट की रेत की तरह
मुझे एक लिफ़ाफ़ा मिला
जिसके ऊपर एक पता था और जिसके पीछे भी एक पता था
लेकिन भीतर से वह खाली था
और ख़ामोश
चिट्ठी तो कहीं और ही पढ़ी गई थी
अपना शरीर छोड़ चुकी नेता की आत्मा की तरह
मैंने गौर से देखा लिफाफा
उसमे एक बू आ रही
जो फैलती थी रातों को
एक गरीब के मकान के भीतर
जहाँ इच्छाओं और भूख ने
गरीब और उसके मकान कों
जर्जर हालत में पहुचा दीया था
दीवार दरवाजे लिफाफे को देख कर चीखते हैं
जैसे लोग सांप को देख कर
लिफाफे के अन्दर से एक नेता प्रकट होता है
और ग्रामोफोन की तरह बोलने लगता है
"मेरे भाइयों मैं देश कों बनाता हूँ
और कुर्सी पर बैठकर इसे चलाता हूँ
अपने पूरे शरीर और पूरी आत्मा के साथ
वोट और तुम्हारे सपनों कों खाकर
इसलिए अब सिर्फ मेरे कों ही वोट देने का ही कर्तव्य है तुम्हारा
क्यों कि मैं भी अब अकेला हूँ इस बिना कुर्सी के
ये कुर्सी मुझे ललचाती है
और बिना इसके नींद नहीं आती है "
लिफाफा बंद हों जाता है
और मैं सोचने लगता हूँ
यह थरथराहट ही नेता की भाषा है
ह्रदय की घबराहट में कुर्सी इसकी आशा है
हर नेता के पास एक समान भाषा है
चाहे वो किसी का पार्टी का हों
वोट वोट वोट वोट वोट..........

Unknown said...

This blog is really a very good step to represent katihar and it's people.

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